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हाल के वर्षों में, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने युवाओं, गरीबों, महिलाओं और किसानों को राष्ट्र के स्तंभ के रूप में पहचाना है। उनका सशक्तिकरण न केवल भाजपा के चुनावी घोषणापत्रों में बल्कि सरकारी पहलों में भी केंद्र बिंदु रहा है। इस फोकस ने जाति, धर्म और लिंग के दायरे से अलग एक “लाभार्थी वर्ग” कहा जा सकता है, जो लक्षित सरकारी योजनाओं से लाभान्वित हो रहा है।
लेकिन आख़िर सरकारी योजनाओं के ये लाभार्थी कौन हैं? उनके मतदान निर्णयों पर क्या प्रभाव पड़ता है?
बीबीसी ने झारखंड और उत्तर प्रदेश राज्यों में कुछ लाभार्थियों के दृष्टिकोण को समझने के लिए उनके जीवन की पड़ताल की। इस रिपोर्ट के माध्यम से, हम तीन महिलाओं की कहानियों को करीब से देखते हैं। झारखंड के गोड्डा जिले की फुदिया देवी और उत्तर प्रदेश के बांदा के सुकुर्तिन प्रजापति इस बात की जानकारी देते हैं कि इन योजनाओं ने उनके जीवन को कैसे प्रभावित किया है।
तीन महिलाएं, कहानी अलग-अलग
सुकुरातिन प्रजापति अपने गांव के एक स्कूल में खाना बनाना शुरू करने से पहले एक मजदूर के रूप में काम करती थीं। उनके पति की मृत्यु हो चुकी है और उनके छह बच्चे हैं। उन्होंने उल्लेख किया कि उन्हें विभिन्न सरकारी योजनाओं से लाभ हुआ है। इन योजनाओं के माध्यम से उन्हें आवास, गैस कनेक्शन, शौचालय, आधार कार्ड और पहचान दस्तावेज प्राप्त हुए हैं। उन्हें राशन और विधवा पेंशन भी मिलती है. सुकुरातिन के पास स्मार्ट कार्ड और आयुष्मान कार्ड भी है।
झारखंड की रहने वाली फुदिया देवी को भी सरकारी योजनाओं का लाभ मिला है. वह इन योजनाओं को कृतज्ञता से देखती है और बताती है कि गैस कनेक्शन के बिना उसे पारंपरिक चूल्हे पर खाना बनाना पड़ता।
हालाँकि, झारखंड की ही कजोरी देवी की कहानी अलग है। वह बताती हैं कि उन्हें किसी भी योजना का कोई लाभ नहीं मिला है. उनके मुताबिक उन्हें गैस, पेंशन या राशन नहीं मिला है.
फुदिया देवी और सुकुरातिन जहां सरकारी योजनाओं के लाभ से संतुष्ट हैं, वहीं काजोरी असंतुष्ट दिखती हैं।
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अलग-अलग राज्यों में अलग हालात?
इन महिलाओं की कहानियों में बुनियादी अंतर है।
सुकुर्तिन प्रजापति उत्तर प्रदेश से आते हैं, जो भाजपा शासित राज्य है, जबकि फुदिया देवी और काजोरी झारखंड से आती हैं, जो भाजपा शासन के अधीन राज्य नहीं है।
लाभार्थीपरक योजनाओं के आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि मोदी सरकार की कई पहलों को गैर-बीजेपी शासित राज्यों ने नहीं अपनाया है. उदाहरण के लिए आयुष्मान भारत योजना को लें।
कई गैर-भाजपा राज्यों का तर्क है कि वे बहुत पहले से ही अलग-अलग नामों से अपनी योजनाएं चला रहे हैं और उनका मानना है कि उनकी योजनाएं केंद्र की मोदी सरकार की योजनाओं से बेहतर हैं।
कई गैर-भाजपा शासित राज्यों पर यह भी आरोप हैं कि मोदी सरकार केंद्रीय योजनाओं के लिए पर्याप्त धन आवंटित नहीं करती है।
जानकार क्या कहते हैं?
आईआईटी दिल्ली की अर्थशास्त्री प्रोफेसर रितिका खेड़ा ने लाभार्थी योजनाओं की फंडिंग में गहराई से काम किया है। व्यापक शोध से प्रेरणा लेते हुए, वह दावा करती हैं कि भाजपा सरकार ने पिछली यूपीए सरकार की तुलना में लाभार्थी योजनाओं के लिए सकल घरेलू उत्पाद का काफी कम हिस्सा आवंटित किया है।
उनके अनुसार, “जब हम लाभार्थी योजनाओं पर सरकारी व्यय की जांच करते हैं, तो हम यूपीए-1 के दौरान उल्लेखनीय वृद्धि देखते हैं, उसके बाद से लगातार गिरावट आई है। यदि हम व्यय को जीडीपी के प्रतिशत के रूप में मापते हैं, तो COVID के आने से पहले वर्ष में, मोदी सरकार ने लाभार्थीपरक योजनाओं पर जीडीपी का महज तीन फीसदी खर्च किया, जो काफी निराशाजनक है.’
हालाँकि, कुछ लोगों का तर्क है कि यदि देश की जीडीपी बढ़ रही है, तो लाभार्थी योजनाओं पर निर्भरता कम है, इसलिए व्यय में कोई उल्लेखनीय वृद्धि की आवश्यकता नहीं है। फिर भी, रितिका का तर्क है, “लाभार्थी योजनाओं का आकलन करने का सही दृष्टिकोण केवल सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि पर आधारित नहीं है, विशेष रूप से विमुद्रीकरण, जीएसटी और सीओवीआईडी महामारी जैसे आर्थिक झटकों को देखते हुए, जिन्होंने अर्थव्यवस्था को गंभीर रूप से प्रभावित किया है।”
फिर भी, लाभार्थी योजनाओं के पीछे की पूरी कहानी उन लोगों के लिए अस्पष्ट बनी हुई है जो उनसे सीधे लाभान्वित होते हैं। उदाहरण के लिए, पिछली मोदी सरकार के दौरान भी ऐसी ही योजनाएं मौजूद थीं, जिनका लाभ लोगों तक पहुंचा। तो, अब ‘लाभार्थी वर्ग’ पर मौजूदा बहस क्यों?
‘लाभार्थी क्लास’ पर अभी चर्चा क्यों?
इस पर सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के राहुल वर्मा कहते हैं, “कुछ बदलाव हुए हैं. पहला बदलाव तो ये है कि पिछले दस सालों में टेक्नोलॉजी की वजह से योजनाओं को लोगों तक पहुंचाना ज़्यादा आसान हो गया है. दूसरा कि अब आप सीधे पैसे भेज सकते हैं उससे भ्रष्टाचार कम हुआ है. तीसरा, टेक्नोलॉजी ने मार्केट करने का भी ज़्यादा स्कोप दिया है.”
राहुल जो कह रहे हैं उसका असर लाभार्थियों के जीवन में भी देखा जा सकता है. काजोरी देवी भी इससे सहमत हैं. वो कहती हैं, “अब अच्छा है कि खाता में पैसा आता है. जब मन करे तब निकालो, जब मन नहीं तो नहीं निकालो. पहले हाथ में देते थे तो ख़र्च हो जाता था.”
भारत के जाने माने राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर भारत के नए ‘लाभार्थी क्लास’ को योजनाओं के नामकरण की स्टाइल से भी जोड़ते हैं.
वो कहते हैं, “कई सारी स्कीमें जो सरकार के अलग-अलग विभाग अलग-अलग नामों से चलाते थे. उनकी रीपैकेजिंग करके या कुछ नई योजनाएं भी शुरू की गई है. इनका सीधा लाभ लाभार्थियों तक पहुंचाया जा रहा है. क्योंकि ये सीधे प्रधानमंत्री की ओर से चलाई जा रही हैं. यही वजह है कि हर स्कीम का नाम है, प्रधानमंत्री रोजगार योजना, प्रधानमंत्री स्वनिधि योजना आदि.”
लेकिन प्रशांत किशोर की इस बात पर बीजेपी के बांदा के विधायक प्रकाश द्विवेदी अलग तर्क देते हैं. वो कहते हैं कि पुरानी सरकारों की तरह योजनाओं को किसी ख़ास नाम से नहीं चलाया जा रहा है.
प्रकाश द्विवेदी कहते हैं, “जैसे पीएम आवास योजना है तो उन्होंने मोदी आवास योजना या नरेंद्र आवास योजना नहीं रखा है ना. इससे पहले इंदिरा आवास योजना होती थी. जवाहर रोज़गार योजना होती थी. प्रधानमंत्री व्यक्ति नहीं है, पद है.”
झारखंड के कांग्रेस के विधायक और कृषि मंत्री बादल पत्रलेख मानते है कि योजनाएं उनके पास भी थीं, लेकिन मोदी सरकार ने अलग नैरेटिव ही सेट किया.
बादल पत्रलेख कहते हैं, “पहले एक रुपया किलो मिलता था, अब आप उसे फ़्री दे रहे हैं. 30 रुपये किलो में आप एक ही रुपया ना मुफ़्त किए. 29 रुपये वाले का कोई नाम नहीं हो रहा है. और एक रुपये वाला मैदान मार के चला जा रहा है.”
कांग्रेस के विधायक जिस योजना का जिक्र कर रहे थे, वो है मोदी सरकार की सबसे चर्चित मुफ़्त राशन लाभार्थी योजना.
इस योजना को मोदी सरकार ने कोविड महामारी के समय जून 2020 में शुरू किया गया था जो अब दिसंबर 2028 तक चलेगी.
मोदी सरकार का दावा है कि अकेले मुफ्त राशन योजना का लाभ आने वाले पांच सालों में तकरीबन 80 करोड़ लोगों को मिलेगा.
पीएम आवास योजना (ग्रामीण) का मक़सद है ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले गरीब लोगों को आवास दिलवाना.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़, सरकार द्वारा कुल 2,94,77835 ( करीब तीन करोड़) घर स्वीकृत किए गए थे. उनमें से 2,59,58739 (करीब दो करोड़ साठ लाख ) पूरे हो चुके हैं.
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साल 2016 में शुरू हुई उज्ज्वला योजना के तहत ग्रामीण इलाकों में एलपीजी सिलिंडर देने की शुरुआत हुई, भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक अक्टूबर, 2023 तक 9.67 करोड़ एलपीजी सिलिंडर लोगों को दिए गए.
पीएम किसान योजना के माध्यम से सरकार किसानों को प्रति वर्ष 6000 रुपये तक देती है.
साल 2018-2019 में जब यह योजना शुरू हुई तीन करोड़ से अधिक लोगों तक पहुँची और इसके बाद यह संख्या बढ़ती गई.
‘जाति और वर्ग की लड़ाई हो गई है धुंधली’
लाभार्थी योजनाओं की ज़मीनी हक़ीक़त को लेकर विपक्षी पार्टियां सवाल उठाती रही हैं.
विश्लेषकों की एक राय के मुताबिक, भारत की चुनावी राजनीति की एक सच्चाई ये भी है कि जाति और वर्ग की लड़ाई को इन योजनाओं ने धुंधला कर दिया है.
लेकिन इसके बाद भी पार्टी की उम्मीदवारों की सूची जाति और वर्ग के समीकरण से बाहर क्यों नहीं आ पा रही है.
सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज़ (सीएसडीएस) के संजय कुमार कहते हैं, “चुनाव में टिकट देने की जो सबसे अहम मापदंड है, वो है कि उम्मीदवार में चुनाव जीतने की क्षमता होनी चाहिए. जाति की इसमें अहम भूमिका होती है, इसमें पैसों और संसाधनों का भी अपना महत्व होता है.”
सवाल ये भी उठता है कि क्या योजनाओं के लाभार्थियों को मोदी सरकार वोट बैंक में तब्दील कर पा रही है. सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज़ ने लोकसभा चुनाव से पहले एक सर्वे किया. इस सर्वे में दिलचस्प आंकड़े निकल कर सामने आए हैं.
संजय कुमार कहते हैं, “हमारे सर्वे से पता चलता है कि बीजेपी को इस बार 40 फीसदी वोट मिलने का अनुमान है और गरीब और निम्न वर्ग के बीच उनका सपोर्ट 39-39 फ़ीसदी है. 2019 की बात करें तो पहले अमीरों और मध्यम वर्ग में उनका जनाधार कहीं ज़्यादा था और गरीबों से अंतर बहुत ज़्यादा होता था. लाभार्थी क्लास ने ये अंतर पाट दिया है.”
आख़िर में जब हमने फुदिया देवी, काजोरी और सुकुरतिन प्रजापति से पूछा कि वो क्या सोचकर वोट देंगी.
फुदिया और सुकुरतिन कहती हैं कि जिस सरकार ने उन्हें योजनाओं का लाभ दिया है वो वोट उसी को देंगी. वहीं काजोरी कहती हैं, “जब हमें घर मिलेगा, पेंशन मिलेगा तभी वोट दूंगी, नहीं तो नहीं दूंगी.”
(झारखंड से स्थानीय पत्रकार प्रवीण तिवारी और उत्तर प्रदेश से स्थानीय पत्रकार पंकज द्विवेदी के इनपुट समेत)